किसान दिवस: नए कानून और किसानों की हालत

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में, जहां किसान सिर्फ और सिर्फ एक चुनावी मुद्दा बन कर रह गया है, वहां किसान दिवस की क्या अहमियत रह जाती है यह बताना तो मुश्किल है लेकिन वर्तमान समय में भी उस व्यक्ति कि एक बार चर्चा करना तो अनिवार्य है जिसने किसान और उससे जुड़े मुद्दों को कागजी फाइलों से निकाल कर संसद से लेकर सड़क तक एक ज्वलंत मुद्दा बना दिया। वह नेता जो किसानों के दिल के इतना करीब था, उनके मुद्दों से इतना जुड़ा हुआ था कि उसके जन्मदिन को देश ने किसान दिवस के रूप में मनाना शुरू कर दिया, हम बात कर रहे है भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और देश के खेत खलिहानों से निकल कर संसद तक का सफर करने वाले किसानों के प्रिये नेता, चौधरी चरण सिंह की। चौधरी चरण सिंह ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने किसान के जुड़े मुद्दों पर खुल कर बोलना शुरू किया और इसे चंद फाइलों से निकाल कर देश के राजनीतिक पटल पर कुछ इस तरह स्थापित किया कि आज भी देश का राजनीति और चुनाव बिना इस चूल्हे में अपने वादों की रोटी सेके आगे नहीं बढ़ पाता। हालांकि इसी सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि चरण सिंह ने इस मुद्दे को भले ही इसलिए मुख्य पर्दे पर लाया हो क्युकी वो उस परिवेश से भली भांति परिचित थे और अपने तरफ़ से किसानों के बेहतरी के लिए पूरा प्रयास भी किया हो लेकिन उनको इस बात का तनिक भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि किसानों का यह मुद्दा आने वाले दिनों में राजनीतिक दलों के सत्ता के भूख को मिटाने वाली एक रोटी मात्र बन कर रह जाएगी। चरण सिंह एक कांग्रेसी थे लेकिन इसके बावजूद भी पंडित नेहरू से उनके कई मुद्दों पर मतभेद थे और वो खुल कर कहा करते थे कि पंडित जी को किसानों के वास्तविक हालत और जमीनी हकीकत का तनिक भी अंदाजा नहीं है। यही नहीं जब पंडित नेहरू ने देश में सहकारी खेती को बढ़ावा देने का विचार किया तो चरण सिंह उनके विरोध में उतरने वाले सबसे मुखर आवाज थे, पंडित नेहरू को भी उनके कद का अंदाजा था और उन्होंने भी अपने इस विचार को जाने दिया। चरण सिंह कि विचारधारा आरंभ से ही शोषित,गरीब, मजदूरों और किसानों के हित से जुड़ी थी और इसका एक बहुत बड़ा प्रमाण तब मिला जब 1952 में उन्होंने जमींदारी उन्मूलन विधेयक पारित किया, इससे नाराज होकर उस समय करीब 27000 पटवारियों ने इस्तीफा दे दिया, लेकिन चरण सिंह इससे घबराए नहीं, उन्होंने नए तरीके से पटवारियों कि भरती शुरू कि जिन्हें आज लेखपाल कहा जाता है, इसमें उन्होंने 18% सीट हरिजनों के लिए आरक्षित किया। चरण सिंह को देश भले ही एक मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में याद न रखे लेकिन एक सशक्त किसान नेता कि उनकी छवि हमेशा बनी रहेगी। आज जब देश में किसान और सरकार आमने सामने खड़ी है ऐसे में किसानों को एक मजबूत नेतृत्व के लिए चरण सिंह कि कमी जरूर खल रही होगी, एक ऐसे नेता कि कमी जो अपने किसी भी व्यक्तिगत स्वार्थ को दरकिनार कर किसानों के मुद्दों और उनके हितों के लिए किसी भी चुनौती से टकराने का माद्दा रखता हो। देश में जब वर्तमान परिस्थिति ऐसी हो कि एक साल में (2019 में) देश ने 10,281 किसान आत्महत्या करता है, अर्थात प्रत्येक घंटे करीब 1 किसान, उनके मसलों को सिर्फ एक चुनावी मुद्दा से आगे बढ़ा कर मुखर रूप से देश के पटल पर रखने के लिए और उसके समाधान के लिए देश एक मजबूत किसान नेता के कमी को निश्चित ही महसूस कर रहा है।
देश कि संसद ने 20 सितंबर 2020 को 3 कृषि विधेयक को पारित किया जो अब कानून बन चुके हैं, देश के कई हिस्सों में इसका विरोध होना शुरू हुआ, इन कानूनों को लेकर दोनो तरफ़ से अपने अपने पक्ष रखे जा रहे हैं, सरकार का कहना है कि देश की तकरीबन 70% आबादी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कृषि पर आर्थिक रूप से निर्भर है, इसके बाबजूद भी अर्थवयवस्था में कृषि का योगदान मात्र 16% है, अतः इसके योगदान को बढ़ाने के लिए एक ‘टोटल रिफॉर्म’ कि जरूरत है और ये सारे कानून इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, वहीं किसान संगठन इन कानूनों से अपने लिए पैदा होने वाले संकटों को लेकर आंदोलन कर रहे है। यह आवश्यक है कि दोनों तरफ के बातों को समझा जाए और फिर यह निर्णय लिया जाए की किस पक्ष को किस मुद्दे पर बात करनी चाहिए और किस प्रकार इस गतिरोध को खत्म किया जाए।
(1)कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020—- यह कानून किसानों और व्यापारियों को अपना फसल APMC के मंडियों के बाहर देश के किसी भी कोने में बेचने को छूट देती है, बिना किसी रोक टोक के वे एक राज्य से दूसरे राज्य में जा कर अपना फसल बेच सकते हैं, किसानों के लाभ को बढ़ाने के लिए मार्केटिंग और ट्रांसपोर्ट खर्च को कम किया जाएगा, अगर किसान मंडी के बाहर फसलों को बेचता है तो उस पर कोई टैक्स नहीं लगेगा, किसान बिना किसी बिचौलिए के अपना फसल बेच सकते हैं, मंडियों के इतर किसान अपना फसल सीधे कोल्ड स्टोरेज, वेयरहाउस अथवा प्रोसेसिंग यूनिट वालों को बेच सकते है तथा इलेक्ट्रॉनिक व्यापार को बढ़ाने के लिए एक सुविधाजनक ढांचा का विकास किया जाएगा।
(2)कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020—- यह कानून देश में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देने के लिए एक बेहतर और राष्ट्रीय स्तर कि प्रणाली बनाए जाने कि बात करता है, इसके तहत छोटे किसान भी किसी बड़े निर्यातक, व्यापारी, फार्म अथवा कोल्ड स्टोरेज वालों से कॉन्ट्रैक्ट लेकर कृषि कर सकते है जिसमे उनके फसल कि कीमत पहले से ही निर्धारित होगी, फसल कि कीमत बढ़ने कि परिस्थिति में किसान को भुगतान नए बढ़े हुए कीमतों पर किया जाएगा, इस प्रकार किसान बाजार के अनिश्चितता के खतरो से बाहर रहेगा और उसे बीज कि आपूर्ति, तकनीकी मदद और फसल बीमा इत्यादि आसानी से प्राप्त होगी। इसके अतिरिक्त किसी भी तरह के विवाद को 30 दिनों के भीतर SDM के द्वारा हल किए जाने कि व्यवस्था कि गई है और साथ ही कृषक उत्पाद समूह (FPO) का निर्माण किया जाएगा जो छोटे किसानों के हितों की रक्षा करेगा।
(3) आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020—- इस कानून के मदद से अनाज, दलहन, तेलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज को युद्ध, प्राकृतिक आपदा, दामों में अत्यधिक वृद्धि जैसी आपातकालीन स्थिति को छोड़ कर कभी भी मनचाही मात्रा में भंडारित किया जा सकेगा अर्थात अब इन सब को आवश्यक वस्तुओं के सूची से बाहर कर दिया गया है। सरकार का कहना है कि इससे कृषि के आधारभूत ढांचे में निवेश बढ़ेगा, एक बेहतर बाजार का विकास होगा जिससे खाद्य वस्तुओं के बर्बादी को कम किया जा सकेगा।
ये तीनों ही कानून अपने आप में बेहतर मालूम पड़ते है और ऐसा लगता है कि कृषि क्षेत्र के आधारभूत संरचनाओं में परिवर्तन के लिए बेहतर साबित होंगे, लेकिन ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर इन कानूनों का विरोध क्यों किया जा रहा है, ऐसे में तीनों कानूनों को लेकर किसान संगठनों के बीच जो डर है उन्हे समझना भी आवश्यक है, अतः यहां हम एक एक करके तीनों कानून को लेकर किसानों के रोष का कारण जानने का प्रयास करेंगे।

कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020

वर्तमान में FCI राज्य सरकार के साथ मिल कर बिचौलियों के मदद से मंडिया लगता है जहां किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अपना फसल बेचता है। सरकार फसल कटने से पहले CACP के सिफारिश पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) कि घोषणा करती है, हालाकि सिर्फ 6% किसान ही अपना फसल MSP पर बेच पाते है। किसानों का कहना है कि नए कानून के आने से APMC कि मंडी बंद हो जाएगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य भी खत्म कर दिया जाएगा। बाजार में निजी कंपनियों के आने से शुरुआत में तो किसानों को फायदा होगा लेकिन कुछ समय बाद बाजार पर निजी कंपनियों का ही एकाधिकार हो जाएगा और वो अपनी मनमानी शर्तों पर बाजार चलाएंगे। किसानों का यह डर वाजिब इस कारण भी प्रतीत होता है क्युकी जब बाजार में निजी कंपनी आएगी तो वो बड़ी कीमतों पर फसल खरीदेगी और ऐसे में कोई भी किसान मंडी में अनाज नहीं बेचेगा जिससे मंडी व्यवस्था धीरे धीरे कमजोर होगी और अंत में उसका हाल वहीं हो जाएगा तो निजी टेलीकॉम कंपनियों के आने से बीएसएनएल का हो गया। वैसी परिस्थिति में बाजार निजी कंपनियों के द्वारा नियंत्रित किया जाएगा और वो मनमानी कीमतों पर फसल खरीद करेंगे। चुकी मंडी में बेचने पर टैक्स लगता है और नए कानून के मुताबिक बाहर बेचने पर टैक्स नहीं लगेगा, इसलिए सब कोई अपना फसल मंडी के बाहर ही बेचेंगे जिससे मंडियों का ढांचा कमजोर होगा और ये बंद होने के कगार पर पहुंच जाएगी। नए कानून में एमएसपी का जिक्र ना होने से किसान घबराए हुए है, हालाकि यह सच है कि एमएसपी कभी भी कानून नहीं था, सरकार स्वामीनाथन आयोग के सिफारिशों के अनुसार हर साल एमएसपी की घोषणा करती है, अब किसान चाहते हैं कि एमएसपी को लेकर कानून बनाया जाए जिससे ये सुनिश्चित हो सके कि निजी कंपनियां अपने मनमानी कीमतों पर फसल ना खरीद पाए।

कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020

इस कानून को लाकर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देने कि बात कि गई है लेकिन किसानों का कहना है कि छोटे किसान,जिनकी संख्या भारत के कुल किसानों का लगभग 85% है, ये किसान प्रायोजकों से बात चीत करने में, अपनी राय रखने में तथा फसलों के खरीद बिक्री पर चर्चा करने में कमजोर होंगे, उनका ये भी कहना है कि बड़ी कंपनियां शायद छोटे किसानों को तबज्जों ना दे और चुकी मंडी बंद होने का डर उन्हें है ही, ऐसे में छोटे किसानों के पास अपनी फसल कम कीमत पर या यूं कहे कि कंपनियों के शर्तों पर बेचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होगा, साथ ही किसी भी तरह के विवाद के परिदृश्य में किसानों के मुकाबले प्रायोजक मजबूत स्थिति में होंगे। चुकी विवादों के निपटारे के लिए एसडीएम के पास शिकायत करने का विकल्प दिया गया है लेकिन किसानों को डर है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी कंपनियां और अधिकारी आपस में मिली भगत करके किसानों के हक को दवा सकते है ऐसे में विवादों के निपटारे का कोई ठोस विकल्प किसानों के सामने नहीं सूझता है।

 आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020

इस कानून के मदद से अनाज, दलहन, तेलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज जैसी वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं के सूची से बाहर रखा गया है और सामान्य दिनों में इनका अब किसी भी हद तक भंडारण किया जा सकता है, अब ऐसे में कंपनियां, कोल्ड स्टोरेज या वेयरहाउस वाले लोग बाजार को अपने हिसाब से नियंत्रित करेंगे, साधारण सी बात है जो बाजार पर नियंत्रण रखेगा वो दाम पर नियंत्रण करेगा, मनचाही भंडारण के सूरत में किसानों को कम कीमत पर फसल बेचने पर मजबूर किया जा सकता है साथ है बाजार में उन्ही सामानों को मनचाही कीमतों पर बेचा जा सकता है।
कई जगहों पर ऐसा कहा जा रहा है कि इन कानूनों का विरोध कुछ चुनिद्दा राज्यों में ही क्यों हो रहा है, उसका कारण यह है कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान ये अब वैसे राज्य है जहां ज्यादातर किसान एमएसपी की कीमतों पर सरकारी मंडी में जा कर अनाज बेचते है, अतः उन्हें एमएसपी और मंडी का डर सबसे ज्यादा है और वे मुखर रूप से इसका विरोध कर रहे हैं। बिहार में इन मंडियो को खत्म करने से उत्पन्न दुष्परिणाम देश के सामने है, दूसरे राज्य के किसानों को भी ऐसा ही डर सता रहा है और इसी कारण से ये लोग तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने, एमएसपी के ऊपर कानून बनाए जाने, स्वामीनाथन आयोग के सिफारिश को पूरी तरह से लागू करने, एनसीआर और उससे जुड़े क्षेत्रों में एयर क्वालिटी मैनेजमेंट से जुड़े अध्यादेश को रद्द करने, कृषि कार्यों में उपयोग होने वाले डीजल के दाम में 50% कि कटौती करने आदि मांगो को लेकर देश भर में और विशेष कर दिल्ली से सटे सिंघू बॉर्डर पर आंदोलन कर रहे हैं।
किसानों के आंदोलन के जवाब में सरकार के तरफ से कई तरह कि सफाई दी गई और बातचीत भी कि गई लेकिन अभी तक सभी कोशिश नाकाम ही साबित हुई है। सरकार का कहना है कि एमएसपी जारी रहेगी और इसके उपर वो लिखित में देने को भी तैयार है साथ कि एपीएमसी कि मंडी भी लगती रहती और किसान अगर चाहे तो एमएसपी पर अपनी फसल मंडी में भी बेच सकते है, नए कानून सिर्फ किसानों को अपना फसल बेचने के लिए नए रास्ते प्रदान करता है, इससे मंडिया बंद नहीं होगी। इसके साथ ही सरकार का कहना है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के सूरत में किसान फसल कि कीमत अपने अनुसार बिना किसी दवाब के तय करेगा और पैसों का भुगतान उसे 3 दिन के भीतर हो जाएगा, साथ ही छोटे किसानों के हितों के रक्षा के लिए किसान संगठनों का निर्माण भी किया जाएगा, इसके अतिरिक्त फसल खरीदने वाली कंपनियां खुद खेतों से फसल ले जाएगी किसानों को किसी भी प्रकार का का खर्च यातायात के साधनों में नहीं करना पड़ेगा और किसी भी प्रकार के विवाद के निपटारे के लिए स्थानीय स्तर पर पारदर्शी ढांचा का विकास किया जाएगा। हालांकि सरकार के इन वादों के बावजूद किसान संगठन अपनी मांग छोड़ने को राजी नहीं है और मजबूती से अपने मांगो को लेकर आंदोलन में डटे हुए हैं।
ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के कृषि कानून देश में पहली बार लाए गए है, इससे पहले साल 2017 में भी एक इसी तरह का कृषि कानून लाया गया था जिसमें साल 2022 तक किसानों कि आय दो गुनी करने के लक्ष्य से कई तरह के प्रावधान किए गए थे। लेकिन ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि आखिर इन नए कृषि कानूनों में ऐसा क्या हो गया कि अन्नदाता आज अपनी मांग को दिन रात एक कर के सड़क पर बैठा है। वह किसान जो चुनावी मौसम में एक ऐसा घोड़ा होता है जिस पर सवार हो कर हर कोई अपनी राजनीतिक महतवाकांक्षा कि रेस को जितना चाहता है, आज उसकी आवाज को दिल्ली के कानों तक पहुंच क्यों नहीं रही है? आखिर क्यों उसका भरोसा अपनी ही चुनी हुई सरकार और उसी सरकार द्वारा किसानों के हित कि बात कहकर लाए गए कानून पर नहीं है? यह निश्चित तौर पर सरकार और किसानों के बीच संचार कि कमी का परिणाम है। यह तय करने का वक्त नहीं है कि कौन अपने जगह कितना सही और कितना गलत है, यह समय है जल्द से जल्द किसानों और सरकार के बीच टूट चुकी भरोसे के बांध को फिर से खड़ा करने कि जो कि लगातार बातचीत से ही संभव है। यह बेहद आवश्यक है कि अन्नदाता और सरकार के बीच विश्वास कि डोर बंधी रहे। किसान अपने खेत में हल पकड़े ही अच्छा लगता है, दिल्ली कि सड़कों पर अपनी मांग के लिए हाथ उठाया हुआ बिल्कुल भी नहीं। सरकार जितनी जल्दी इनका विश्वास, भरोसा,यकीन जीत कर और आवश्यक कदम उठा कर इन्हे इनकी खेतों के तरफ भेज दे, देश के लिए उतना ही अच्छा होगा, बाकी चुनाव आते ही किसान हितों के बात कि चूल्हा तो फिर से गर्म होगी ही और आज किसानों के बिरयानी खाने से जिनको दिक्कत है वो भी और जिनको नहीं है वो भी, दोनों अपनी भूख मिटाने के लिए राजनीति कि रोटी इसी चूल्हे में सेकेंगे। बाकी हमारे और आपके लिए ये बेहद आवश्यक है कि हम अपनी भूमिका तय करे और इस पूरे प्रकरण में अपने आप को कहां खरा पाते है ये सुनिश्चित करे, इसलिए नहीं कि आज किसान दिवस है, इसलिए कि हमारे और आपके शरीर का एक एक बूंद खून इन किसानों के पसीनों से बना है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी मुद्दों पर हम किसान के साथ खड़े हो या फिर सभी मुद्दों पर सरकार के साथ खड़े हो, आवश्यक ये है कि हम हितों के रक्षा में और सच के साथ हमेशा खड़े रहे।
जय जवान ! जय किसान !


Report By: Devesh Kumar

2 thoughts on “किसान दिवस: नए कानून और किसानों की हालत

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